शिकार भी हम शिकारी भी हम...
"पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि मैं दीपिका पादुकोण का कभी प्रशंसक नहीं रहा" : कौशलेंद्र
Theअख़बार
स्पेशल : अब मैं अपनी बात प्रारम्भ करता हूँ। आपने साँप को मेढक का शिकार करते देखा होगा, यदि नहीं तो बिल्ली को चूहे का शिकार करते तो देखा ही होगा ...वह भी नहीं देखा तो आदमी को आदमी का शिकार करते तो कई बार देखा ही होगा। कुछ पलों के लिए आँखें बंद कर इन घटनाओं के काल्पनिक दृश्यों को देखने का प्रयास कीजिये।
विकास करते-करते मनुष्य एक ऐसा प्राणी बन गया है जो अपने शिकार को किसी अपराध के लिए एक बार नहीं कई बार दण्ड देता है । दण्डनायक की भूमिका में मीडिया, पुलिस का डण्डा, समाज और मी लॉर्ड के अतिरिक्त स्वयं की आत्मग्लानि को देखकर जिज्ञासा होती है ...किसी अपराधी को अपने कृत्य के लिए कितने दण्डनायकों द्वारा कितने दण्ड भोगने होते हैं!
चीन की मीडिया को जहाँ कोई स्वतंत्रता नहीं मिलती वहीं भारत की मीडिया को असीमित स्वतंत्रता और शक्तियाँ प्राप्त हैं। तैमूर ख़ान और दीपिका पादुकोण को देखने के लिए मीडिया के पास अलग-अलग आँखें हुआ करती हैं। एक आँख में चाँद है और दूसरी आँख में सूरज। आज मैंने दण्डनायक के रूप में मीडिया की आक्रामकता, मर्यादाहीनता, स्वच्छंदता और उतावलेपन को देखा है। यह स्वीकार्य नहीं है। क्या किसी अपराधी के प्रति इतनी दण्डात्मक आक्रामकता उचित है?
हम मानते हैं कि ड्रग्स का सेवन एक व्यक्तिगत अपराध है और उसका सामाजिक दुष्प्रभाव बहुत व्यापक है। ड्रग्स का व्यापार एक बहुत सुनियोजित तंत्र द्वारा संचालित होता है। दीपिका पादुकोण को तो अभी से दण्ड मिलना प्रारम्भ हो चुका है किंतु क्या इस सुनियोजित तंत्र को भी कभी कोई दण्ड मिल सकेगा?
कुछ लोग मानते हैं कि कई बार ये एक्ट्रेस और मॉडल्स कैमरे के सामने स्वयं को पेश नहीं करतीं बल्कि उन्हें पेश किया जाता है। सामान्य स्थिति में कोई भी लड़की इतने कम कपड़ों में ऐसे सीन नहीं दे सकती। उन्हें असामान्य होना होता है या फिर उन्हें असामान्य बना दिया जाता है। ड्रग्स की यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। लड़कियों को अपनी असीमित महत्वाकाक्षाओं और समझौतों के लिए जीवन भर दण्ड भोगना होता है।
आपको याद होगा, कुछ समय पहले दिल्ली में शिक्षण संस्थाओं के बाहर कण्डोम वितरित करने वाली मशीनें लगाये जाने की चर्चा हुयी थी। मैंने इस व्यवस्था में युवापीढ़ी की चारित्रिक शिथिलता को सरकारी स्वीकृति के रूप में देखा था। मुझे यह भी याद है कि कई दशक पहले मध्यप्रदेश के एक महिला महाविद्यालय के सोशियोलॉज़िकल स्टडी सर्वे में वहाँ की लड़कियों द्वारा ड्रग्स लेने और देहव्यापार में संलिप्त होने की बात सामने आयी थी। उस अध्ययन सर्वेक्षण को किसी कानूनी कार्यवाही के लिए आधार के रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता किसी ने नहीं समझी थी। ड्रग्स का धंधा डिग्री कॉलेज़ेज़ से लेकर स्कूलों तक फैलता गया, नई पीढ़ी बरबाद होती रही और ड्रग्स का धंधा फलता-फूलता रहा। क्या नई पीढ़ी को बचाने के लिए शिक्षण संस्थाओं की ओर भी कभी ध्यान दिया जायेगा?
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